अलवर में जो हुआ उससे आहत हूं. क्या अब रात-दिन कोई भी समय किसी के लिए भी सुरक्षित नहीं. क्या बददिमाग वहशियों के हौसले इतने बुलंद हो गए हैं कि वो कहीं भी कभी कुछ भी करने को स्वतंत्र है. निर्भया के बाद कानून की सख्ती के ढोल पीटे गए थे. कुछेक जगह नजीरे भी आई, चटफट न्याय हुआ. पर हुआ क्या? कुछ असर पड़ा? खुद निर्भया के हरामखोर (Don’t Pardon my Language) दोषी अब तक फांसी पर नहीं चढ़े हैं.
कई बार मेरा मन करता है बागी हो जाऊं. दरिंदों को गोली मारने निकल पडूं. बलात्कारियों को, घूसखोरों को.
क्या हमारी लचर लॉ एंड ऑर्डर व्यवस्था (क्योंकि अब तक पकड़े नहीं गए) और लचरतम न्याय व्यवस्था ( एक कोर्ट से दूसरे कोर्ट, मर्सी पिटिशन) आम इनसान को खुद का न्याय खुद करने की ओर नहीं धकेल देगी ?
सच में कभी कभी बागी हो जाने का मन करता है…
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